उस अधिकारी का घर विश्वेश्वरैया के मामा के घर से लगभग 15 किलोमीटर दूर था। विश्वेश्वरैया प्रतिदिन पैदल ही इस दूरी को तय करते और बच्चों को ट्यूशन पढ़ाकर लौट आते। पढ़ाई के लिए ट्यूशन की व्यवस्था हो जाने के बाद विश्वेश्वरैया ने सन 1875 में बंगलौर के सेन्ट्रल कॉलेज में प्रवेश लिया। सन 1880 ई0 में वहाँ से उन्होंने बी.ए. की परीक्षा विशेष योग्यता के साथ उत्तीर्ण की। उनकी इच्छा थी कि वे आगे इंजीनियरिंग की पढ़ाई करें, पर आर्थिक स्थिति उन्हें इसकी अनुमति नहीं दे रही थी। सेन्ट्रल कॉलेज के प्रिंसिपल, जोकि एक अंग्रेज थे, विश्वेश्वरैया की योग्यता से बहुत प्रभावित थे। उन्होंने विश्वेश्वरैया की मुलाकात मैसूर के तत्कालीन दीवान श्री रंगाचारलू से करवाई। रंगाचारलू ने विश्वेश्वरैया की लगन को देखकर उनके लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था कर दी। इसके बाद विश्वेश्वरैया ने पूना के ‘साइंस कॉलेज’ में प्रवेश लिया। उन्होंने ‘सिविल इंजीनियरिंग’ श्रेणी में मुम्बई विश्वविद्यालय के समस्त कॉलेजों के छात्रों के बीच सर्वोच्च अंक प्राप्त करते हुए 1883 में इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल की। इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त करते ही विश्वेश्वरैया को बम्बई के लोक निर्माण विभाग में सहायक अभियन्ता के रूप में नौकरी मिल गयी। उस समय भारत अंग्रेजों के अधीन था। अंग्रेज अधिकारी उच्च पदों पर आमतौर से अंग्रेजों को ही नियुक्त करते थे। विश्वेश्वरैया ने इस पद पर काम करते हुए शीघ्र ही अंग्रेज़ इंजीनियरों से अपना लोहा मनवा लिया। प्रारम्भिक दौर में विश्वेश्वरैया ने प्राकृतिक जल स्रोत्रों से इकट्ठा होने वाले पानी को घरों तक पहुँचाने के लिए जल-आपूर्ति और घरों के गंदे पानी को निकालने के लिए नाली-नालों की समुचित व्यवस्था की। उन्होंने खानदेश जिले की एक नहर में पाइप-साइफन के कार्य को भलीभाँति सम्पन्न करके भी अपनी धाक जमाई।
विश्वेश्वरैया के जीवन में सबसे बड़ी चुनौती सन 1894-95 में आई, जब उन्हें सिन्ध के सक्खर क्षेत्र में पीने के पानी की परियोजना सौंपी गयी। उन्होंने इस चुनौती को सहर्ष स्वीकार किया। उन्होंने वहाँ पर बाँध बनवाने की योजना बनवाई। जब उस योजना को प्रारम्भ करने का समय आया, तो विश्वेश्वरैया यह देख कर दु:खी हो गये कि वहाँ का पानी पीने लायक ही नहीं था। इसलिए उन्होंने सबसे पहले उस पानी को स्वच्छ बनाने का फैसला किया। पानी को साफ करने की तमाम तकनीकों का अध्ययन करने के बाद विश्वेश्वरैया इस नतीजे पर पहुँचे कि इस नदी के पानी को साफ करने के लिए नदी की रेत का प्रयोग सबसे आसान रहेगा। इसके लिए उन्होंने नदी के तल में एक गहरा कुँआ बनाया। उस कुँए में रेत की कई पर्तें बिछाई गयीं। इस प्रकार रेत की उन पर्तों से गुजरने के बाद नदी का पानी स्वच्छ हो गया। इस परियोजना के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद विश्वेश्वरैया की ख्याति चारों ओर फैल गयी और वे अंग्र ने अपनी मौलिक सोच के द्वारा बाढ़ के पानी को नियंत्रित करने के लिए खड़गवासला बांध पर स्वचालित जलद्वारों का प्रयोग किया। इनकी खासियत यह थी कि बाँध में लगे जलद्वार पानी को रोक कर रखते थे, जब तक वह पिछली बाढ़ की ऊँचाई के स्तर तक नहीं पहुँच जाता था। उसके बाद जैसे ही बाँध का पानी उससे ऊपर की ओर बढ़ता जलद्वार अपने आप ही खुल जाते।
और जैसे ही बाँध का पानी उसके निर्धारित स्तर तक पहुँचता बांध के जलद्वार स्वत: ही बंद हो जाते।विश्वेश्वरैया ने सिर्फ पीने के पानी की समस्या का ही निराकरण नहीं किया, उन्होंने खेतों की सिंचाई के लिए उत्तम प्रबंध किये। इसके लिए उन्होंने बाँध से नहरें निकालीं और उनके द्वारा खेतों तक पानी की व्यवस्था की। विश्वेश्वरैया ने अपने इन कार्यों के द्वारा पूना, बैंगलोर, मैसूर, बड़ौदा, कराची, हैदराबाद, कोल्हापुर, सूरत, नासिक, नागपुर, बीजापुर, धारवाड़, ग्वालियर, इंदौर सहित अनेक नगरों को जल संकट से पूर्णत: मुक्ति प्रदान कर दी। यह वह दौर था, जब आजादी के लिए आंदोलन अपने पूरे उफान पर था। इस आंदोलन को गति देने के लिए गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक जैसे स्वतंत्रता सेनानी सरकारी पदों पर विराजमान भारतीयों को इस आंदोलन से जोड़ने के लिए विशेषरूप से प्रयासरत थे। इन तमाम नेताओं के सम्पर्क में आने के बाद विश्वेश्वरैया ने भारतीय जनमानस तक आम सुविधाएँ पहुँचाने का निश्चय लिया और उसके लिए उन्होंने दिन रात एक कर दिया। अपने परिश्रम और लगन के बल पर विश्वेश्वरैया लोक निर्माण विभाग में तरक्की की सीढि़याँ चढ़ते गये। वे 1904 में विभाग के सुपरिंटेंडिंग इंजीनियर पर नियुक्त हुए। उन दिनों में विभाग के प्रमुख का पद अंग्रेजों के लिए आरक्षित था। विश्वेश्वरैया ने इसका विरोध करते हुए 1908 में अपने पद से इस्तीफा दे दिया। अंग्रेज सरकार उन जैसे योग्य व्यक्ति को खोना नहीं चाहती थी, इसलिए उसने विश्वेश्वरैया से इस फैसले पर पुनर्विचार करने का आग्रह किया। पर विश्वेश्वरैया अपने निश्चय से नहीं डिगे। उस समय विभाग की न्यूनतम 25 वर्ष की सेवा के उपरांत ही पेंशन का प्रावधान था। हालाँकि विश्वेश्वरैया की 25 वर्ष की सेवाएँ नहीं हुई थीं, इसके बावजूद अंग्रेज सरकार ने इस नियम को बदलते हुए उन्हें पेंशन प्रदान की। अपनी नौकरी से त्यागपत्र देने के बाद विश्वेश्वरैया ने विदेशों की यात्राएँ की और अनेक इंजीनियरिंग संस्थानों में जाकर वहाँ से अनुभव अर्जित करने का फैसला किया। उन दिनों बरसात के दिनों में सारे देश में बाढ़ की विभीषिका व्याप्त हो जाती थी। हैदराबाद के निजाम भी इससे बहुत त्रस्त थे। इसलिए विश्वेश्वरैया के विदेश प्रवेश से लौटते ही वहाँ के निजाम ने उन्हें इस समस्या से निजात दिलाने की जिम्मेदारी सौंप दी। विश्वेश्वरैया लगभग एक वर्ष तक हैदराबाद में रहे। इस दौरान उन्होंने वहाँ पर अनेक बाँधों और नहरों का निर्माण कराया, जिससे वहाँ की बाढ़ की समस्या काफी हद तक समाप्त हो गयी। उसी दौरान मैसूर राज्य के तत्कालीन दीवान ने विश्वेश्वरैया से सम्पर्क किया और उनसे मैसूर राज्य के प्रमुख इंजीनियर की जिम्मेदारी संभालने का आग्रह किया। चूँकि विश्वेश्वरैया की शिक्षा में मैसूर राज्य की छात्रवृत्ति का बड़ा योगदान था, इसलिए वे उनका आग्रह टाल न सके और 1909 में हैदराबाद से मैसूर आ गये। मैसूर राज्य की कावेरी नदी अपनी बाढ़ के लिए दूर-दूर तक कुख्यात थी। उसकी बाढ़ के कारण प्रतिवर्ष सैकड़ों गाँव तबाह हो जाते थे। कावेरी पर बाँध बनाने के लिए काफी समय से प्रयत्न किये जा रहे थे। लेकिन अन्यान्य कारणों से यह कार्य पूर्ण न हो सका था। विश्वेश्वरैया ने जब इस योजना को अपने हाथ में लिया, तो उन्होंने मूल योजना में काफी खोट नजर आई। उन्होंने मैसूर को बाढ़ की विभीषिका से मुक्ति दिलाने के लिए कावेरी नदी का वृहद सर्वेक्षण किया और तब जाकर एक विस्तृत योजना तैयार की।
विश्वेश्वरैया ने कावेरी नदी पर बाँध बनाने की जो योजना बनाई थी, उसमें लगभग 2 करोड़ 53 लाख रूपये खर्च होने का अनुमान था। 1909 में यह एक बड़ी राशि थी। लेकिन यह विश्वेश्वरैया के व्यक्तित्व का ही प्रताप था कि मैसूर सरकार उनकी इस योजना से सहमत हो गयी और योजना को हरी झण्डी दे दी।विश्वेश्वरैया ने अपनी सूझबूझ और लगन का परिचय देते हुए कावेरी नदी पर कृष्णराज सागर बाँध का निर्माण कराया। लगभग 20 वर्ग मील में फैला यह बाँध 130 फिट ऊँचा और 8600 फिट लम्बा था। यह विशाल बाँध 1932 में बनकर पूरा हुआ, जो उस समय भारत का सबसे बड़ा बाँध था। बाँध के पानी को नियंत्रित करने के लिए उससे अनेक नहरें एवं उपनहरें भी निकाली गयीं, जिन्हें ‘विश्वेश्वरैया चैनल’ नाम दिया गया। इस बाँध में 48,000 मिलियन घन फिट पानी एकत्रित किया जा सकता था, जिससे 1,50,000 एकड़ कृषि भूमि की सिंचाई की जा सकती थी और 60,00 किलोवाट बिजली बनाई जा सकती थी। कृष्णराज सागर बाँध वास्तव में एक बहुउद्देशीय परियोजना थी, जिसके कारण मैसूर राज्य की कायापलट हो गयी। वहाँ पर अनेक उद्योग-धंधे विकसित हुए, जिसमें भारत की विशालतम मैसूर शुगर मिल भी बनाई गई। सन 1909 में विश्वेश्वरैया के चीफ इंजीनियर बनने के तीन साल बाद ही मैसूर राज्य के तत्कालीन दीवान (प्रधानमंत्री) की मृत्यु हो गयी। मैसूर के महाराजा उस समय तक डॉ0 विश्वेश्वरैया के गुणों से भलीभाँति परिचित हो चुके थे। इसलिए उन्होंने विश्वेश्वरैया को मैसूर का नया दीवान नियुक्त कर दिया। इस पद पर विश्वेश्वरैया लगभग 6 वर्ष तक रहे। दीवान बनने के साथ ही विश्वेश्वरैया ने राज्य के समग्र विकास पर ध्यान देना शुरू किया। उन्होंने अपने कार्यकाल में शिक्षा के प्रचार-प्रसार पर बल दिया और प्रदेश में अनके तकनीकी संस्थानों की नींव रखी।विश्वेश्वरैया ने 1913 में स्टेट बैंक ऑफ मैसूर की स्थापना की। व्यापार तक जनपरिवहन को सुचारू बनाने के लिए उन्होंने राज्य में अनेक महत्वपूर्ण स्थानों पर रेलवे लाइन बनवाईं। इसके साथ ही साथ उन्होंने इंजीनियरिंग कॉलेज, बंगलौर (1916) एवं मैसूर विश्वविद्यालय की स्थापना की। सन 1918 में ऊर्जा जरूरतों को पूरा करने के लिए उन्होंने पॉवर स्टेशन की भी स्थापना की। इसके साथ ही साथ उन्होंने सामाजिक विकास के लिए अनेक योजनाओं को संचालित किया, प्रेस की स्वतंत्रता को लागू करवाया और औद्योगीकरण पर बल दिया। सन 1919 में महाराजा से वैचारिक भिन्नता के कारण विश्वेश्वरैया ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। उसके बाद वे कई महत्वपूर्ण समितियों के अध्यक्ष एवं सदस्य रहे। उन्होंने सिंचाई आयोग के सदस्य के रूप में अनेक योजनाओं को अमलीजामा पहनाया। बम्बई सरकार की औद्योगिक शिक्षा समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने अपनी संवाएँ प्रदान कीं। वे भारत सरकार द्वारा नियुक्त अर्थ जाँच समिति के भी अध्यक्ष रहे। उन्होंने बम्बई कार्पोरेशन में भी एक वर्ष परामर्शदाता के रूप में अपनी सेवाएँ प्रदान कीं। सन 1921 में आजादी के आंदोलन में सम्मिलित हो गये। उन्होंने वाइसराय से विचार-विमर्श किया और स्वराज की माँग पर विचार करने के लिए ‘गोलमेज सम्मेलन’ का समर्थन किया। इसके साथ ही साथ उन्होंने देश की अनेक विकास योजनाओं में भी उत्साहपूर्वक भाग लिया। उन्होंने बंगलौर में ‘हिन्दुस्तान हवाई जहाज संयत्र’ एवं ‘विजाग पोत-कारखाना’ प्रारम्भ करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। इसके अतिरिक्त उन्होंने भ्रद्रावती इस्पात योजना को परवान चढ़ने के लिए भी काफी श्रम किया। विश्वेश्वरैया सतत कार्य करने वाले व्यक्ति के रूप में जाने जाते हैं। उन्होंने 100 वर्ष से अधिक का जीवन पाया और जीवन की अन्तिम घड़ी तक वे कभी खाली नहीं बैठे। 14 अप्रैल सन 1962 को उनका देहान्त हुआ। विश्वेश्वरैया के पुरस्कार एवं सम्मान: विश्वेश्वरैया धुन के पक्के, लगनशील और ईमानदार इंजीनियर के रूप में जाने जाते हैं। वे कठिन परिश्रम और ज्ञान के पुजारी थे। उन्होंने अपने कार्यों के द्वारा समाज में जो प्रतिष्ठा प्राप्त की, वह बिरले लोगों को ही नसीब होती है। उनकी कार्यनिष्ठा एवं योग्यता से प्रसन्न होकर ब्रिटिश सरकार ने उन्हें ‘सर’ की उपाधि से विभूषित किया। आपने कई पुस्तके भी लिखी जिनका प्रकाशन भी हुआ। डॉ0 विश्वेश्वरैया के योगदान को दृष्टिगत रखते हुए उन्हें जादवपुर विश्वविद्यालय, पटना विश्वविद्यालय एवं प्रयाग विश्वविद्याय ने डी.एस.सी. की मानद उपाधि प्रदान की। इसके अतिरिक्त काशी विश्वविद्यालय ने उन्हें डी.लिट तथा मैसूर विश्वविद्यालय एवं बम्बई विश्वविद्यालय ने उन्हें एल.एल.डी की उपाधियों से सम्मानित किया। उनकी राष्ट्रसेवा को दृष्टिगत रखते हुए भारत सरकार ने उन्हें सन 1955 में भारत के सर्वोच्च सम्मान ‘भारत रत्न’ से विभूषित किया। 1961 में उनके 100 वर्ष पूरे करने के उपलक्ष्य में देश ने उनका शताब्दी समारोह मनाया। भारत सरकार ने उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया।डॉ0 मोक्षगुण्डम् विश्वेश्वरैया आज हमारे बीच नहीं हैं। पर उन्होंने भारत निर्माण के लिए इतने कार्य किये हैं, कि जब तक यह संसार रहेगा, वे ‘आधुनिक भारत के विश्वकर्मा’ के रूप में याद किये जाते रहेंगे।आपकी म्रत्यु 12 अप्रैल 1962 को बंगलौर मैं हुई थी।
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