Sunday 8 May 2016

Luise brail life story

लुइस ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 मे फ्रांस के छोटे से ग्राम कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिये काठी और जीन बनाने का कार्य किया करते थें। पारिवारिक आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त आर्थिक संसाधन नही होने के कारण साइमन केा अतिरिक्त मेहनत करनी होती थी इसीलिये जब बालक लुइस मात्र पांच वर्ष के हुये तो उनके पिता ने उसे भी अपने साथ घोड़ों के लिये काठी और जीन बनाने के कार्य में लगा लिया। अपने स्वभाव के अनुरूप पांच वर्षीय बालक अपने आस पास उपलब्ध वस्तुओं से खेलने में अपना समय बिताया करता था इसलिये बालक लुइस के खेलने की वस्तुये वही थीं जो उसके पिता द्वारा अपने कार्य में उपयोग की जाती थीं जैसे कठोर लकड़ी, रस्सी, लोहे के टुकडे, घोड़े की नाल, चाकू और काम आने वाले लोहे के औजार। किसी पांच वर्षीय बालक का अपने नजदीक उपलब्ध वस्तुओं के साथ खेलना और शरारतों में लिप्त रहना नितांत स्वाभाविक भी था। एक दिन काठी के लिये लकडी को काटते में इस्तेमाल किया जाने वाली चाकू अचानक उछल कर इस नन्हें बालक की आंख में जा लगी और बालक की आँख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जडी लगाकर उसकी आँख पर पट्टी कर दी गयी। शायद यह माना गया होगा कि छोटा बालक है सेा शीघ्र ही चोट स्वतः ठीक हो जायेगी। बालक लुइस की आंख के ठीेक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद बालक लुइस ने अपनी दूसरी आंख से भी कम दिखलायी देने की शिकायत की परन्तु यह उसके पिता साइमन की साघन हीनता रही होगी अथवा लापरवाही जिसके चलते बालक की आँख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका और धीरे धीरे वह नन्हा बालक आठ वर्ष का पूरा होने तक पूरी तरह दृष्टि हीन हो गया। रंग बिरंगे संसार के स्थान पर उस बालक के लिये सब कुछ गहन अंधकार में डूब गया। अपने पिता के चमडे के उद्योग में उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी आखें एक दुर्घटना में गवां दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में घटी। जहाँ तीन वर्ष की उम्र में एक लोहे का सूजा लुई की आँख में घुस गया।

यह बालक कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से लडने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। उसने हार नहीं मानी और फा्रंस के मशहूर पादरी बैलेन्टाइन की शरण में जा पहुंचा। पादरी बैनेन्टाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस दस वर्षीय बालक को ‘ रायल इन्स्टीट्यूट फार ब्लाइन्डस् ’ में दाखिला मिल गया। यह वर्ष 1821 था। बालक लुइस अब तक बारह बर्ष का हो चुका था। इसी दौरान विद्यालय में बालक लुइस केा पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर ने सेना के लिये ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों के पढ सकते थे। कैप्टेन चार्लस बार्बर का उद्देश्य युद्व के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था। बालक लुइस का मष्तिष्क सैनिकों के द्वारा टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्ठिहीन व्यक्तियो के लिये पढने की संभावना ढूंढ रहा था। उसने पादरी बैलेन्टाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टेन चार्लस बार्बर से मुलाकात करना चाहता है। पादरी ने लुइस की कैप्टेन से मुलाकात की व्यवस्था करायी। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टेन के द्वारा सुझायी गयी कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये। कैप्टेन चार्लस बार्बर उस अंधे बालक का आत्मविश्वाश देखकर दंग रह गये। अंततः पादरी बैलेन्टाइन के इस शिष्य के द्वारा बताये गये संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।
कालान्तर में स्वयं लुइस ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किये और अंततः 1829 में छह बिन्दुओ पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुये। लुइस ब्रेल के आत्मविश्वाश की अभी और परीक्षा होना बाकी था इसलिये उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा मान्यता नहीं दी गयी और उसका माखौल उडाया गया। सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर के नाम का साया लगातार इस लिपि पर मंडराता रहा और सेना के द्वारा उपयोग में लाये जाने के कारण इस लिपि केा सेना की कूटलिपि ही समझा गया परन्तु लुइस ब्रेल ने हार नहीं मानी और पादरी बैलेन्टाइन के संवेदनात्मक आर्थिक एवं मानसिक सहयोग से इस शिष्य ने अपनी अविष्कृत लिपि को दृष्ठि हीन व्यक्तियों के मध्य लगातार प्रचारित किया। उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि इसे दृष्ठिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाय। यह लुइस का दुर्भाग्य रहा कि उनके प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी और तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा इसे भाषा के रूप में मान्यता दिये जाने योग्य नहीं समझा गया।