Tuesday 10 May 2016

bill gates life story


बिल गेट्स जो की दुनिया के सबसे आमिर तथा धनि व्यक्तियों की सूचि में प्रथम स्थ पर है। बिल गेट्स का पूरा नाम विलियम हेनरी गेट्स था। बिल गेट्स का जन्म 28 अक्टूबर 1955 में वाशिंगटनमें हिया था। बिल गेट्स सामान्य परिवार से थे। बिल गेट्स के पिता विलियम एच.गेट्स था जो की वकील थे। तथा उनकी माता का नाम मैरी मैक्सवेल था।जो की एक बैंक की व्यस्थापक समिति की सदस्य थी। बिल गेट्स की दो बहन थी। बड़ी बहन का नाम क्रिस्टी तथा छोटी बहन का नाम लिब्बी है। बिल गेट्स बचपन से ही होशियार थे। 13 वर्ष की उम्र में उन्हें वही के एक प्रचलित लेक्साइड विद्यालय में एडमिशन कराया गया।जब वो 8वी कक्षा में थे तब ही से उनकी रूचि प्रोग्रामिंग में थी उन्होंने जी.ई. भाषा के द्वारा एक प्रोग्राम बनाया जो की एक खेल था। जिसका नाम टिक-टैक-टो था। जब वे स्कूल में थे तब एक दिन उन्होंने उनकी टीचर को कहा था की में 30 साल की आयु में करोड़पति बनकर दिखाऊंगा। और मात्र 31 वर्ष की आयु में वे अरबपति बने। उन्होंने स्कूल टाइम में ही प्रोग्राम बनाकर 200 $ कमाए।सन 1975 में बिल गेट्स ने पाल एलन के साथ मिलकर माइक्रोसॉफ्ट कंपनी की स्थापना की जो की आज विश्व की सबसे बड़ी कंपनी है। जब बिल गेट्स 32 साल के थे तभी उनका नाम अरबपतियो की फ़ोर्ब्स सूचि में आ गया। बिल गेट्स की शादी1 जून 1994 में फ़्रांसिसी में लिंडा के साथ डलास टेक्सास में हुई। बिल गेट्स के 3 बच्चे हुए । (1)जेनिफर कैथराइन गेट्स , 1996 (2)रोरी जॉन गेट्स,1999 (3)फोएबे अदेले गेट्स,2002 बिल गेट्स अपना जीवन सामान्य जीते थे। उनका बंगला डेड़ एकड़ में बना हुआ है। जिसमे 7 बेडरूम जिम स्विमिंग पुल थियेटर हे जिसे उन्होंने 60 लाख डॉलर में ख़रीदा था।बिल गेट्स की संपत्ति 56 बिलियन डॉलर है। बिल गेट्स के अनुसार यदि वे अपनी संपत्ति का 1% भी अपने बच्चो के लिए छोड़ दे तो वह उनके लिए काफी होगा।

Sunday 8 May 2016

Luise brail life story

लुइस ब्रेल का जन्म 4 जनवरी 1809 मे फ्रांस के छोटे से ग्राम कुप्रे में एक मध्यम वर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता साइमन रेले ब्रेल शाही घोडों के लिये काठी और जीन बनाने का कार्य किया करते थें। पारिवारिक आवश्यकताओं के अनुरूप पर्याप्त आर्थिक संसाधन नही होने के कारण साइमन केा अतिरिक्त मेहनत करनी होती थी इसीलिये जब बालक लुइस मात्र पांच वर्ष के हुये तो उनके पिता ने उसे भी अपने साथ घोड़ों के लिये काठी और जीन बनाने के कार्य में लगा लिया। अपने स्वभाव के अनुरूप पांच वर्षीय बालक अपने आस पास उपलब्ध वस्तुओं से खेलने में अपना समय बिताया करता था इसलिये बालक लुइस के खेलने की वस्तुये वही थीं जो उसके पिता द्वारा अपने कार्य में उपयोग की जाती थीं जैसे कठोर लकड़ी, रस्सी, लोहे के टुकडे, घोड़े की नाल, चाकू और काम आने वाले लोहे के औजार। किसी पांच वर्षीय बालक का अपने नजदीक उपलब्ध वस्तुओं के साथ खेलना और शरारतों में लिप्त रहना नितांत स्वाभाविक भी था। एक दिन काठी के लिये लकडी को काटते में इस्तेमाल किया जाने वाली चाकू अचानक उछल कर इस नन्हें बालक की आंख में जा लगी और बालक की आँख से खून की धारा बह निकली। रोता हुआ बालक अपनी आंख को हाथ से दबाकर सीधे घर आया और घर में साधारण जडी लगाकर उसकी आँख पर पट्टी कर दी गयी। शायद यह माना गया होगा कि छोटा बालक है सेा शीघ्र ही चोट स्वतः ठीक हो जायेगी। बालक लुइस की आंख के ठीेक होने की प्रतीक्षा की जाने लगी। कुछ दिन बाद बालक लुइस ने अपनी दूसरी आंख से भी कम दिखलायी देने की शिकायत की परन्तु यह उसके पिता साइमन की साघन हीनता रही होगी अथवा लापरवाही जिसके चलते बालक की आँख का समुचित इलाज नहीं कराया जा सका और धीरे धीरे वह नन्हा बालक आठ वर्ष का पूरा होने तक पूरी तरह दृष्टि हीन हो गया। रंग बिरंगे संसार के स्थान पर उस बालक के लिये सब कुछ गहन अंधकार में डूब गया। अपने पिता के चमडे के उद्योग में उत्सुकता रखने वाले लुई ने अपनी आखें एक दुर्घटना में गवां दी। यह दुर्घटना लुई के पिता की कार्यशाला में घटी। जहाँ तीन वर्ष की उम्र में एक लोहे का सूजा लुई की आँख में घुस गया।

यह बालक कोई साधरण बालक नहीं था। उसके मन में संसार से लडने की प्रबल इच्छाशक्ति थी। उसने हार नहीं मानी और फा्रंस के मशहूर पादरी बैलेन्टाइन की शरण में जा पहुंचा। पादरी बैनेन्टाइन के प्रयासों के चलते 1819 में इस दस वर्षीय बालक को ‘ रायल इन्स्टीट्यूट फार ब्लाइन्डस् ’ में दाखिला मिल गया। यह वर्ष 1821 था। बालक लुइस अब तक बारह बर्ष का हो चुका था। इसी दौरान विद्यालय में बालक लुइस केा पता चला कि शाही सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर ने सेना के लिये ऐसी कूटलिपि का विकास किया है जिसकी सहायता से वे टटोलकर अंधेरे में भी संदेशों के पढ सकते थे। कैप्टेन चार्लस बार्बर का उद्देश्य युद्व के दौरान सैनिकों को आने वाली परेशानियों को कम करना था। बालक लुइस का मष्तिष्क सैनिकों के द्वारा टटोलकर पढ़ी जा सकने वाली कूटलिपि में दृष्ठिहीन व्यक्तियो के लिये पढने की संभावना ढूंढ रहा था। उसने पादरी बैलेन्टाइन से यह इच्छा प्रगट की कि वह कैप्टेन चार्लस बार्बर से मुलाकात करना चाहता है। पादरी ने लुइस की कैप्टेन से मुलाकात की व्यवस्था करायी। अपनी मुलाकात के दौरान बालक ने कैप्टेन के द्वारा सुझायी गयी कूटलिपि में कुछ संशोधन प्रस्तावित किये। कैप्टेन चार्लस बार्बर उस अंधे बालक का आत्मविश्वाश देखकर दंग रह गये। अंततः पादरी बैलेन्टाइन के इस शिष्य के द्वारा बताये गये संशोधनों को उन्होंने स्वीकार किया।
कालान्तर में स्वयं लुइस ब्रेल ने आठ वर्षो के अथक परिश्रम से इस लिपि में अनेक संशोधन किये और अंततः 1829 में छह बिन्दुओ पर आधारित ऐसी लिपि बनाने में सफल हुये। लुइस ब्रेल के आत्मविश्वाश की अभी और परीक्षा होना बाकी था इसलिये उनके द्वारा आविष्कृत लिपि को तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा मान्यता नहीं दी गयी और उसका माखौल उडाया गया। सेना के सेवानिवृत कैप्टेन चार्लस बार्बर के नाम का साया लगातार इस लिपि पर मंडराता रहा और सेना के द्वारा उपयोग में लाये जाने के कारण इस लिपि केा सेना की कूटलिपि ही समझा गया परन्तु लुइस ब्रेल ने हार नहीं मानी और पादरी बैलेन्टाइन के संवेदनात्मक आर्थिक एवं मानसिक सहयोग से इस शिष्य ने अपनी अविष्कृत लिपि को दृष्ठि हीन व्यक्तियों के मध्य लगातार प्रचारित किया। उन्होंने सरकार से प्रार्थना की कि इसे दृष्ठिहीनों की भाषा के रूप में मान्यता प्रदान की जाय। यह लुइस का दुर्भाग्य रहा कि उनके प्रयासों को सफलता नहीं मिल सकी और तत्कालीन शिक्षाशाष्त्रियों द्वारा इसे भाषा के रूप में मान्यता दिये जाने योग्य नहीं समझा गया।

Monday 25 April 2016

nikolas copernikas life story


महान वैज्ञानिक निकोलस कोपरनिकस का जन्म 19 फ़रवरी 1473  को हुआ था। आप युरोपिय खगोलशास्त्री व गणितज्ञ थे। आपके अनुसार पृथ्वी अंतरिक्ष के केन्द्र में नहीं है। आप पहले युरोपिय खगोलशास्त्री थे ।आपने प्रथ्वी को ब्रह्माण्ड के केन्द्र से बाहर माना, यानी हीलियोसेंट्रिज्म मॉडल को लागू किया। इसके पहले पूरा युरोप अरस्तू की अवधारणा पर विश्वास करता था, जिसमें पृथ्वी ब्रह्माण्ड का केन्द्र थी और सूर्ये, तारे तथा दूसरे पिंड उसके गिर्द चक्कर लगाते थे।

1530 में कोपरनिकस की किताब डी रिवोलूशन्स (De Revolutionibus) प्रकाशित हुई जिसमें उसने बताया कि पृथ्वी अपने अक्ष पर घूमती हुई एक दिन में चक्कर पूरा करती है और एक साल में सूर्य का चक्कर पूरा करती है। कोपरनिकस ने तारों की स्थिति ज्ञात करने के लिए प्रूटेनिक टेबिल्स की रचना की जो अन्य खगोलविदों के बीच काफी लोकप्रिय हुई।

खगोलशास्त्री होने के साथ साथ कोपरनिकस गणितज्ञ, चिकित्सक, अनुवादक, कलाकार, न्यायाधीश, गवर्नर, सैन्य नेता और अर्थशास्त्री भी थै। उन्होंने मुद्रा पर शोध कर ग्रेशम के प्रसिद्ध नियम को स्थापित किया, जिसके अनुसार खराब मुद्रा अच्छी मुद्रा को चलन से बाहर कर देती है। उन्होंने मुद्रा के संख्यात्मक सिद्धांत का फार्मूला दिया। कोपरनिकस के सुझावों ने पोलैंड की सरकार को मुद्रा के स्थायित्व में सहायता प्रदान की।

कोपरनिकस के अन्तरिक्ष के बारे में सात नियम, जो उनकी किताब में दर्ज हैं, इस प्रकार हैं :

सभी खगोलीय पिंड किसी एक निश्चित केन्द्र के परितः नहीं हैं
पृथ्वी का केन्द्र ब्रह्माण्ड का केन्द्र नहीं है; वह केवल गुरुत्व व चंद्रमा का केन्द्र है
सभी गोले (आकाशीय पिंड) सूर्य के परितः चक्कर लगाते हैं। इस प्रकार सूर्य ही ब्रह्माण्ड का केन्द्र है
पृथ्वी की सूर्य से दूरी, पृथ्वी की आकाश की सीमा से दूरी की तुलना में बहुत कम है
आकाश में हम जो भी गतियां देखते हैं वह दरअसल पृथ्वी की गति के कारण होता है। (आंशिक रूप से सत्य)
जो भी हम सूर्य की गति देखते हैं, वह दरअसल पृथ्वी की गति होती है
जो भी ग्रहों की गति हमें दिखाई देती है, उसके पीछे भी पृथ्वी की गति ही जिम्मेदार होती है
विशेष बात यह है कि कोपरनिकस ने ये निष्कर्ष बिना किसी प्रकाशिक यंत्र के उपयोग के प्राप्त किए। वह घंटों नंगी आँखों से अन्तरिक्ष को निहारता रहता था और गणितीय गणनाओं द्वारा सही निष्कर्ष प्राप्त करने की कोशिश करता रहता था। बाद में गैलिलियो ने जब दूरदर्शी का आविष्कार किया तो उसके निष्कर्षों की पुष्टि हुई।आपकी म्रत्यु 24 माय 1543 में हुई।


Tuesday 19 April 2016

ramanujam life story


रामानुजन का जन्म 22 दिसम्बर 1887 को भारत के कोयंबटूर के ईरोड नामक गांव में हुआ था। आपका जन्म ब्राम्हण परिवार में हुआ था। आपकी माता का नाम कोमलताम्मल था।तथा आपके पिता का नाम श्रीनिवास अय्यंगर था। इनका बचपन रामानुजम तीन वर्ष की आयु तक बोलना भी नहीं पाते थे। इतनी बड़ी आयु तक जब रामानुजन ने बोलना आरंभ नहीं किया तो सबको चिंता हुई कि कहीं यह गूंगे तो नहीं हैं। रामानुजन ने दस वर्षों की आयु में प्राइमरी परीक्षा में पूरे जिले में सबसे अधिक अंक प्राप्त किया और आगे की शिक्षा के लिए टाउन हाईस्कूल गए। रामानुजम के दिमाग में अजीबो गरीब प्रश्न आते थे।जिनके उतर टीचर भी नही दे पते थे। जैसे कि-संसार में पहला पुरुष कौन था? पृथ्वी और बादलों के बीच की दूरी कितनी होती है? रामानुजन का व्यवहार बड़ा ही मधुर था। विद्यालय में इनकी प्रतिभा ने दूसरे विद्यार्थियों और शिक्षकों पर छाप छोड़ना आरंभ कर दिया। इन्होंने स्कूल के समय में ही कालेज के स्तर के गणित को पढ़ लिया था। एक बार इनके विद्यालय के प्रधानाध्यापक ने यह भी कहा था कि विद्यालय में होने वाली परीक्षाओं के मापदंड रामानुजन के लिए लागू नहीं होते हैं। हाईस्कूल की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद इन्हें गणित और अंग्रेजी मे अच्छे अंक लाने के कारण सुब्रमण्यम छात्रवृत्ति मिली और आगे कालेज की शिक्षा के लिए प्रवेश भी मिला। आगे एक परेशानी आई। रामानुजन का गणित के प्रति प्रेम इतना बढ़ गया था कि वे दूसरे विषयों पर ध्यान ही नहीं देते थे। यहां तक की वे इतिहास, जीव विज्ञान की कक्षाओं में भी गणित के प्रश्नों को हल किया करते थे। नतीजा यह हुआ कि ग्यारहवीं कक्षा की परीक्षा में वे गणित को छोड़ कर बाकी सभी विषयों में फेल हो गए और परिणामस्वरूप उनको छात्रवृत्ति मिलनी बंद हो गई। एक तो घर की आर्थिक स्थिति खराब और ऊपर से छात्रवृत्ति भी नहीं मिल रही थी। रामानुजन के लिए यह बड़ा ही कठिन समय था। घर की स्थिति सुधारने के लिए इन्होने गणित के कुछ ट्यूशन तथा खाते-बही का काम भी किया। कुछ समय बाद 1907 में रामानुजन ने फिर से बारहवीं कक्षा की प्राइवेट परीक्षा दी और अनुत्तीर्ण हो गए। विद्यालय छोड़ने के बाद का पांच वर्षों का समय इनके लिए बहुत हताशा भरा था। भारत इस समय परतंत्रता की बेड़ियों में जकड़ा था। चारों तरफ भयंकर गरीबी थी। ऐसे समय में रामानुजन के पास न कोई नौकरी थी और न ही किसी संस्थान अथवा प्रोफेसर के साथ काम करने का मौका। बस उनका ईश्वर पर अटूट विश्वास और गणित के प्रति अगाध श्रद्धा ने उन्हें कर्तव्य मार्ग पर चलने के लिए सदैव प्रेरित किया। नामगिरी देवी रामानुजन के परिवार की ईष्ट देवी थीं। उनके प्रति अटूट विश्वास ने उन्हें कहीं रुकने नहीं दिया और वे इतनी विपरीत परिस्थितियों में भी गणित के अपने शोध को चलाते रहे। इस समय रामानुजन को ट्यूशन से कुल पांच रूपये मासिक मिलते थे और इसी में गुजारा होता था। रामानुजन का यह जीवन काल बहुत कष्ट और दुःख से भरा था। इन्हें हमेशा अपने भरण-पोषण के लिए और अपनी शिक्षा को जारी रखने के लिए इधर उधर भटकना पड़ा और अनेक लोगों से असफल याचना भी करनी पड़ी। वर्ष 1908 में इनके माता पिता ने इनका विवाह जानकी नामक कन्या से कर दिया। विवाह हो जाने के बाद अब इनके लिए सब कुछ भूल कर गणित में डूबना संभव नहीं था। अतः वे नौकरी की तलाश में मद्रास आए। बारहवीं की परीक्षा उत्तीर्ण न होने की वजह से इन्हें नौकरी नहीं मिली और उनका स्वास्थ्य भी बुरी तरह गिर गया। अब डॉक्टर की सलाह पर इन्हें वापस अपने घर कुंभकोणम लौटना पड़ा। बीमारी से ठीक होने के बाद वे वापस मद्रास आए और फिर से नौकरी की तलाश शुरू कर दी। ये जब भी किसी से मिलते थे तो उसे अपना एक रजिस्टर दिखाते थे। इस रजिस्टर में इनके द्वारा गणित में किए गए सारे कार्य होते थे। इसी समय किसी के कहने पर रामानुजन वहां के डिप्टी कलेक्टर श्री वी. रामास्वामी अय्यर से मिले। अय्यर गणित के बहुत बड़े विद्वान थे। यहां पर श्री अय्यर ने रामानुजन की प्रतिभा को पहचाना और जिलाधिकारी श्री रामचंद्र राव से कह कर इनके लिए 25 रूपये मासिक छात्रवृत्ति का प्रबंध भी कर दिया। इस वृत्ति पर रामानुजन ने मद्रास में एक साल रहते हुए अपना प्रथम शोधपत्र प्रकाशित किया। शोध पत्र का शीर्षक था "बरनौली संख्याओं के कुछ गुण” और यह शोध पत्र जर्नल ऑफ इंडियन मैथेमेटिकल सोसाइटी में प्रकाशित हुआ था। यहां एक साल पूरा होने पर इन्होने मद्रास पोर्ट ट्रस्ट में क्लर्क की नौकरी की। सौभाग्य से इस नौकरी में काम का बोझ कुछ ज्यादा नहीं था और यहां इन्हें अपने गणित के लिए पर्याप्त समय मिलता था। यहां पर रामानुजन रात भर जाग कर नए-नए गणित के सूत्र लिखा करते थे और फिर थोड़ी देर तक आराम कर के फिर दफ्तर के लिए निकल जाते थे। रामानुजन गणित के शोधों को स्लेट पर लिखते थे। और बाद में उसे एक रजिस्टर पर लिख लेते थे। रात को रामानुजन के स्लेट और खड़िए की आवाज के कारण परिवार के अन्य सदस्यों की नींद चौपट हो जाती थी। इस समय भारतीय और पश्चिमी रहन सहन में एक बड़ी दूरी थी और इस वजह से सामान्यतः भारतीयों को अंग्रेज वैज्ञानिकों के सामने अपने बातों को प्रस्तुत करने में काफी संकोच होता था। इधर स्थिति कुछ ऐसी थी कि बिना किसी अंग्रेज गणितज्ञ की सहायता लिए शोध कार्य को आगे नहीं बढ़ाया जा सकता था। इस समय रामानुजन के पुराने शुभचिंतक इनके काम आए और इन लोगों ने रामानुजन द्वारा किए गए कार्यों को लंदन के प्रसिद्ध गणितज्ञों के पास भेजा। पर यहां इन्हें कुछ विशेष सहायता नहीं मिली लेकिन एक लाभ यह हुआ कि लोग रामानुजन को थोड़ा बहुत जानने लगे थे। इसी समय रामानुजन ने अपने संख्या सिद्धांत के कुछ सूत्र प्रोफेसर शेषू अय्यर को दिखाए तो उनका ध्यान लंदन के ही प्रोफेसर हार्डी की तरफ गया। प्रोफेसर हार्डी उस समय के विश्व के प्रसिद्ध गणितज्ञों में से एक थे। और अपने सख्त स्वभाव और अनुशासन प्रियता के कारण जाने जाते थे। प्रोफेसर हार्डी के शोधकार्य को पढ़ने के बाद रामानुजन ने बताया कि उन्होने प्रोफेसर हार्डी के अनुत्तरित प्रश्न का उत्तर खोज निकाला है। अब रामानुजन का प्रोफेसर हार्डी से पत्रव्यवहार आरंभ हुआ। अब यहां से रामानुजन के जीवन में एक नए युग का सूत्रपात हुआ जिसमें प्रोफेसर हार्डी की बहुत बड़ी भूमिका थी। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो जिस तरह से एक जौहरी हीरे की पहचान करता है और उसे तराश कर चमका देता है, रामानुजन के जीवन में वैसा ही कुछ स्थान प्रोफेसर हार्डी का है। प्रोफेसर हार्डी आजीवन रामानुजन की प्रतिभा और जीवन दर्शन के प्रशंसक रहे। रामानुजन और प्रोफेसर हार्डी की यह मित्रता दोनो ही के लिए लाभप्रद सिद्ध हुई। एक तरह से देखा जाए तो दोनो ने एक दूसरे के लिए पूरक का काम किया। प्रोफेसर हार्डी ने उस समय के विभिन्न प्रतिभाशाली व्यक्तियों को 100 के पैमाने पर आंका था। अधिकांश गणितज्ञों को उन्होने 100 में 35 अंक दिए और कुछ विशिष्ट व्यक्तियों को 60 अंक दिए। लेकिन उन्होंने रामानुजन को 100 में पूरे 100 अंक दिए थे। आरंभ में रामानुजन ने जब अपने किए गए शोधकार्य को प्रोफेसर हार्डी के पास भेजा तो पहले उन्हें भी पूरा समझ में नहीं आया। जब उन्होंने अपने मित्र गणितज्ञों से सलाह ली तो वे इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि रामानुजन गणित के क्षेत्र में एक दुर्लभ व्यक्तित्व है और इनके द्वारा किए गए कार्य को ठीक से समझने और उसमें आगे शोध के लिए उन्हें इंग्लैंड आना चाहिए। अतः उन्होने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए आमंत्रित किया। कुछ व्यक्तिगत कारणों और धन की कमी के कारण रामानुजन ने प्रोफेसर हार्डी के कैंब्रिज के आमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। प्रोफेसर हार्डी को इससे निराशा हुई लेकिन उन्होनें किसी भी तरह से रामानुजन को वहां बुलाने का निश्चय किया। इसी समय रामानुजन को मद्रास विश्वविद्यालय में शोध वृत्ति मिल गई थी जिससे उनका जीवन कुछ सरल हो गया और उनको शोधकार्य के लिए पूरा समय भी मिलने लगा था। इसी बीच एक लंबे पत्रव्यवहार के बाद धीरे-धीरे प्रोफेसर हार्डी ने रामानुजन को कैंब्रिज आने के लिए सहमत कर लिया। प्रोफेसर हार्डी के प्रयासों से रामानुजन को कैंब्रिज जाने के लिए आर्थिक सहायता भी मिल गई। रामानुजन ने इंग्लैण्ड जाने के पहले गणित के करीब 3000 से भी अधिक नये सूत्रों को अपनी नोटबुक में लिखा था। रामानुजन ने लंदन की धरती पर कदम रखा। वहां प्रोफेसर हार्डी ने उनके लिए पहले से व्ववस्था की हुई थी अतः इन्हें कोई विशेष परेशानी नहीं हुई। इंग्लैण्ड में रामानुजन को बस थोड़ी परेशानी थी और इसका कारण था उनका शर्मीला, शांत स्वभाव और शुद्ध सात्विक जीवनचर्या। अपने पूरे इंग्लैण्ड प्रवास में वे अधिकांशतः अपना भोजन स्वयं बनाते थे। इंग्लैण्ड की इस यात्रा से उनके जीवन में क्रांतिकारी परिवर्तन आया। उन्होंने प्रोफेसर हार्डी के साथ मिल कर उच्चकोटि के शोधपत्र प्रकाशित किए। अपने एक विशेष शोध के कारण इन्हें कैंब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा बी.ए. की उपाधि भी मिली। लेकिन वहां की जलवायु और रहन-सहन की शैली उनके अधिक अनुकूल नहीं थी और उनका स्वास्थ्य खराब रहने लगा। डॉक्टरों ने इसे क्षय रोग बताया। उस समय क्षय रोग की कोई दवा नहीं होती थी और रोगी को सेनेटोरियम मे रहना पड़ता था। रामानुजन को भी कुछ दिनों तक वहां रहना पड़ा। वहां इस समय भी यह गणित के सूत्रों में नई नई कल्पनाएं किया करते थे।भारत लौटने पर भी स्वास्थ्य ने इनका साथ नहीं दिया और हालत गंभीर होती जा रही थी। इस बीमारी की दशा में भी इन्होने मॉक थीटा फंक्शन पर एक उच्च स्तरीय शोधपत्र लिखा। रामानुजन द्वारा प्रतिपादित इस फलन का उपयोग गणित ही नहीं बल्कि चिकित्साविज्ञान में कैंसर को समझने के लिए भी किया जाता है। इनका गिरता स्वास्थ्य सबके लिए चिंता का विषय बन गया और यहां तक की अब डॉक्टरों ने भीजवाब दे दिया था। अंत में रामानुजन के विदा की घड़ी आ ही गई। 26 अप्रैल1920 के प्रातः काल में वे अचेत हो गए और दोपहर होते होते उन्होने प्राण त्याग दिए।

Friday 15 April 2016

cv raman life story


दक्षिण भारत के त्रिचुनापल्ली में पिता चंद्रशेखर अय्यर व माता पार्वती अम्मा के घर में 7 नवंबर 1888 को जन्मे भौतिक शास्त्री चंद्रशेखर वेंकट रमन उनके माता पिता के दूसरे नंबर की संतान थे। उनके पिता चंद्रशेखर अय्यर महाविद्यालय में भौतिक विज्ञान के प्रवक्ता थे।
रमन की पढ़ाई और नौकरी :
बेहतर शैक्षिक वातावरण में पले बढ़े सीवी रमन ने अनुसंधान के क्षेत्र में कई कीर्तिमान स्थापित किए। भारत में विज्ञान को नई ऊंचाइयां प्रदान करने में उनका काफी बड़ा योगदान रहा है।
प्रेसीडेंसी कॉलेज मद्रास से भौतिक विज्ञान से स्नातकोत्तर की डिग्री लेने वाले श्री रमन को गोल्ड मैडल प्राप्त हुआ। भारत सरकार ने भी विज्ञान के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के उन्हें भारत रत्न सम्मान से नवाजा। साथ ही संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा दिए जाने वाले प्रतिष्ठित लेनिन शांति पुरस्कार से उन्हें सम्मानित किया गया।
वैज्ञानिक के तौर पर दुनियाभर में जाने गए रमन की गणित में जबर्दस्त रूचि थी और उनकी पहली नौकरी कोलकाता में भारत सरकार के वित्त विभाग में सहायक महालेखाकार की थी। देश को आजादी मिलने के बाद 1947 में भारत सरकार ने उन्हें राष्ट्रीय प्रोफेसर नियुक्त किया था।
सर चंद्रशेखर वेंकट रमन के पिता गणित एवं भौतिकी के अध्यापक थे इसलिए उनका लालन-पालन बिल्कुल उसी माहौल में हुआ। उनकी मां पार्वती अम्मल घरेलू महिला थीं। रमन बचपन से ही मेधावी थे। उन्होंने महज 11 वर्ष की आयु में उच्चतर माध्यमिक की पढ़ाई पूरी कर ली लेकिन विदेश जाना शायद उनकी किस्मत में नहीं था और स्वास्थ्य खराब होने के कारण वह उच्च शिक्षा के लिए विदेश नहीं जा सके। उन्होंने 1902 में मद्रास के प्रेसीडेंसी कॉलेज में दाखिला लिया और 1904 में बीएससी (भौतिकी) की डिग्री हासिल की।
वर्ष 1907 में उन्होंने एमएससी की डिग्री हासिल की। फिर कोलकाता में भारत सरकार के वित्त विभाग में सहायक महालेखाकार के तौर पर सेवारत हुए। दफ्तर के काम से फुरसत मिलने के बाद वह इंडियन एसोसिएशन फॉर द कल्टिवेशन साइंस की प्रयोगशाला में प्रयोग करते थे। इसी परिश्रम के पारितोषिक के तौर पर उन्हें नोबेल पुरस्कार मिला।
रमन ने 1917 में सरकारी सेवा से इस्तीफा दे दिया और कोलकाता विश्वविद्यालय में भौतिकी के प्रोफेसर बन गए। इस दौरान उन्होंने आईएसीएस में अपना अनुसंधान जारी रखा। उन्होंने वर्ष 1929 में भारतीय विज्ञान कांग्रेस के 16 वें सत्र की अध्यक्षता भी की। रमन को वर्ष 1930 में प्रकाश के प्रकीर्णन और रमण प्रभाव की खोज के लिए भौतिकी के क्षेत्र में प्रतिष्ठित नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया।
इसी पर रमन स्पेक्ट्रोस्कोपी आधारित है और उनके सिद्धांत का इस्तेमाल कर दुनिया के कई अन्य वैज्ञानिकों ने नए सिद्धांत प्रतिपादित किए। रमन प्रभाव पर आज भी काम हो रहा है।
वह वर्ष 1934 में बेंगलुरु स्थित भारतीय विज्ञान संस्थान के निदेशक बने। रमन ने स्टिल की स्पेक्ट्रम प्रकृति पर भी काम किया। उन्होंने नए सिरे से स्टिल डाइनेमिक्स के बुनियादी मुद्दों पर काम किया। उन्होंने हीरे की संरचना और गुणों पर भी काम किया। अनेक रंगदीप्त पदार्थो के प्रकाशीय आचरण पर भी शोध किया। वह वर्ष 1948 में आईआईएस से सेवानिवृत्त हुए। सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने बेंगलुरू में रमन रिसर्च इंस्टीटयूट की स्थापना की। उन्हें विज्ञान के क्षेत्र में योगदान के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया।
सीवी रमन की उपलब्धि :
भौतिकी विशेषज्ञ सर सीव. रमन द्वारा 'रमन इफैक्ट' की खोज के उपलक्ष्य में 28 फरवरी को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है। उन्होंने ही पहली बार तबले और मृदंगम के संनादी (हार्मोनिक) की प्रकृति का पता लगाया था।
विज्ञान के क्षेत्र में योगदान के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया। उन्हें वर्ष 1929 में नाइटहुड, वर्ष 1954 में भारत रत्न तथा वर्ष 1957 में लेनिन शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। विज्ञान के क्षेत्र में नोबेल पुरस्कार प्राप्त करने वाले सीवी रमन पहले भारतीय वैज्ञानिक बने।
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रमन प्रभाव' की खोज भारतीय भौतिक शास्त्री सर सीवी रमन द्वारा दुनिया को दिया गया विशिष्ट उपहार है। इस खोज के लिए उन्हें विश्व प्रतिष्ठित पुरस्कार नोबेल पुरस्कार से सम्मानित किया गया था और भारत में इस दिन को राष्ट्रीय विज्ञान दिवस के रूप में मनाया जाता है।
आपकी म्रत्यु 7 नवम्बर को हुई